लखाईडीह गाँव की हकीकत : विकास से दूर आदिवासी बच्चों का टूटा भविष्य

जमशेदपुर: पूर्वी सिंहभूम जिले के डुमरिया प्रखंड का दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र स्थित लखाईडीह गाँव आज भी विकास और शिक्षा से कोसों दूर है। यह छोटा-सा आदिवासी बहुल गाँव लगभग पूरी तरह अनुसूचित जनजाति (ST) की आबादी वाला है। गाँव तक पक्की सड़क नहीं पहुँच पाई है, जिसके कारण प्रसव पीड़ा में महिलाओं और गंभीर बीमारियों से जूझ रहे मरीजों को अस्पताल तक पहुँचाना बेहद कठिन हो जाता है। सरकारी योजनाओं जैसे प्रधानमंत्री आवास योजना, पेंशन योजना और माईया सम्मान योजना का लाभ भी यहाँ प्रभावी रूप से नहीं पहुँच पा रहा है।

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छात्रावासों की बदहाल स्थिति

लखाईडीह और आसपास के इलाके के लगभग 200 आदिवासी बच्चे शिक्षा के लिए छात्रावासों पर निर्भर हैं। लेकिन डुमरिया प्रखंड में आदिवासी बच्चों के लिए बने दोनों छात्रावास वर्षों से संसाधनों के अभाव में बंद पड़े हैं। हाल ही में तैयार हुआ नया छात्रावास भी रखरखाव न होने से जर्जर हालत में है।

नए छात्रावास में करीब 85 लड़कियाँ रह रही हैं। सभी जमीन पर ही सोने को मजबूर हैं क्योंकि वहाँ न तो बिस्तर, मेज-कुर्सी, फर्नीचर है और न ही बिजली की सुविधा। पीने के पानी और रसोई की व्यवस्था तक नहीं है। बच्चों को भोजन के लिए प्रतिदिन 500 मीटर दूर पुराने छात्रावास तक आना-जाना पड़ता है। वहीं पुराने छात्रावास में स्थिति और भी दयनीय है – एक-एक बिस्तर पर दो से तीन बच्चे सोते हैं। छात्रावास परिसर में बिजली जाने पर कोई विकल्प नहीं है और सभी सोलर लाइट रखरखाव के अभाव में खराब पड़ी हैं।

मनोरंजन, खेल-कूद और सांस्कृतिक गतिविधियों की कोई सुविधा नहीं होने से बच्चों का मानसिक और सामाजिक विकास प्रभावित हो रहा है। कंप्यूटर, इंटरनेट और डिजिटल शिक्षा से उनका कोई परिचय नहीं है। पढ़ाई के साथ-साथ भोजन और सुरक्षा तक की समस्याएँ इन बच्चों के सामने खड़ी हैं।

समाजसेवियों का दौरा और शिकायत

कुछ दिन पहले पूर्व जिला परिषद सदस्य अर्जुन पूर्ति और अधिवक्ता सह समाजसेवी ज्योतिर्मय दास ने गाँव का दौरा किया। ग्रामीणों और बच्चों से बातचीत में छात्रावासों की दुर्दशा और सरकारी योजनाओं की अनुपलब्धता उजागर हुई। इसके बाद अधिवक्ता ज्योतिर्मय दास ने प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) और मुख्यमंत्री कार्यालय (CMO) को विस्तृत शिकायत भेजी। उन्होंने माँग की है कि दोनों छात्रावास तुरंत चालू किए जाएँ और बच्चों को बिस्तर, फर्नीचर, बिजली, शुद्ध पानी, रसोई, कंप्यूटर और डिजिटल शिक्षा की सुविधाएँ दी जाएँ। साथ ही गाँव को पक्की सड़क से जोड़ा जाए, ताकि स्वास्थ्य सेवाएँ और योजनाएँ प्रभावी रूप से पहुँच सकें।

संविधान और अधिकारों का उल्लंघन

ज्योतिर्मय दास ने कहा, “भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 21, 21A, 46 और 47 राज्य को यह बाध्यता देते हैं कि अनुसूचित जनजाति और कमजोर वर्गों के बच्चों को शिक्षा, जीवन की गरिमा और सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा मिले। लखाईडीह जैसे गाँवों की उपेक्षा संविधान और कानून की भावना के प्रतिकूल है। यदि सरकार ने कार्रवाई नहीं की तो यह बच्चों के मौलिक अधिकारों का हनन होगा। जरूरत पड़ी तो न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ेगा।”

नेताओं की नाराजगी

पूर्व जिला परिषद सदस्य अर्जुन पूर्ति ने कहा, “लखाईडीह और आसपास के आदिवासी गाँव दशकों से उपेक्षा का शिकार हैं। लगभग 200 बच्चे जिनके सपनों में शिक्षा और भविष्य की रोशनी है, वे आज भी बिजली और पढ़ाई की सुविधा से वंचित हैं। सरकार करोड़ों रुपए खर्च करती है, लेकिन अफसरशाही और ठेकेदारों की मिलीभगत से जमीनी स्तर पर कोई सुधार नहीं दिखता। सरकार को तुरंत कदम उठाकर इन बच्चों के भविष्य को सुरक्षित करना चाहिए।”

ग्रामीणों की अपील

ग्रामीणों और बच्चों के माता-पिता का कहना है कि वे केवल बुनियादी सुविधाएँ चाहते हैं, ताकि उनका भविष्य अंधकारमय न हो। उनका कहना है कि यदि सरकार ने समय रहते ध्यान नहीं दिया तो पूरा एक पीढ़ी पिछड़ जाएगी। लखाईडीह की स्थिति न केवल सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन की पोल खोलती है, बल्कि यह सवाल भी खड़ा करती है कि क्या सच में आदिवासी क्षेत्रों का सर्वांगीण विकास केवल कागजों तक सीमित है।